गहरे लाल कपड़ों में लिपटे हुए, हाथों में माला फेरते हुए, वो भिक्षु हमारी तरफ़ चले आ रहे हैं.
ये उनके लिए जोख़िम भरा फ़ैसला है. क्योंकि आठ अनजान लोग हमारा पीछा कर रहे हैं. ऐसे में सार्वजनिक जगह पर हमसे कुछ भी बात करना उनके लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है. बावजूद इसके वो ख़तरा उठाने के लिए तैयार दिखते हैं.
वो धीरे से कहते हैं, ''यहां हमारे लिए हालात अच्छे नहीं हैं.''
चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सिचुआन प्रांत का ये कीर्ति मठ दशकों से तिब्बती विरोध का केंद्र रहा है. दुनिया ने इसका नाम 2000 के दशक के आख़िर में जाना, तब जब यहां कई तिब्बती लोगों ने चीनी शासन के विरोध में ख़ुद को आग लगा ली थी. अब क़रीब 20 साल बाद भी कीर्ति मठ बीजिंग को परेशान करता है.
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मठ के मुख्य दरवाज़े पर एक पुलिस स्टेशन बना दिया गया है. उसके पास ही एक छोटा, अंधेरा कमरा है जिसमें 'प्रार्थना चक्र' लगे हैं जो घूमते हुए हल्की आवाज़ करते हैं. लोहे के खंभों पर लगे सीसीटीवी कैमरे पूरे परिसर को बारीकी से देख रहे हैं.
वो भिक्षु कहते हैं, ''वे अच्छे लोग नहीं हैं, ये सबको साफ़ दिखता है. सावधान रहिए, लोग आपको देख रहे हैं.''
जैसे ही हमारे पीछे लोग तेजी से आते हैं, वो भिक्षु वहां से चले जाते हैं.
"वे" यानी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, जो 1950 में इस इलाक़े को अपने में मिलाने के बाद पिछले क़रीब 75 साल से 60 लाख से ज़्यादा तिब्बतियों पर शासन कर रही है.
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चीन ने इस इलाक़े में भारी भरकम निवेश किया है. टूरिज़्म बढ़ाने और पूरे देश को इस इलाक़े से जोड़ने के लिए नए रोड और रेल नेटवर्क तैयार किए गए हैं. लेकिन तिब्बत छोड़कर गए लोगों का कहना है कि आर्थिक विकास के साथ-साथ यहां सेना और दूसरे अधिकारी भी आ गए, जिससे उनके धर्म और आज़ादी पर चोट की गई है.
चीन, तिब्बत को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है. चीन ने तिब्बत से निर्वासित आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा को अलगाववादी करार दिया है. जो लोग दलाई लामा की तस्वीर लगाते हैं या सार्वजनिक रूप से उनका समर्थन करते नज़र आते हैं, वो यहां जेल जा सकते हैं.
इसके बावजूद कीर्ति मठ वाले इस इलाक़े, एबा या तिब्बती में कहें तो एनगाबा के कई लोग इन पाबंदियों को खुलकर चुनौती देते हैं.
ये शहर उस इलाक़े के बाहर है जिसे चीन तिब्बत ऑटोनॉमस रीजन (टीएआर) कहता है, जिसे 1965 में बनाया गया था और ये तिब्बती पठार के क़रीब आधे हिस्से में फैला है.
लेकिन लाखों तिब्बती लोग टीएआर के बाहर रहते हैं और उस बाकी हिस्से को ही अपना घर मानते हैं.
इस पूरे विरोध में एबा की हमेशा से अहम भूमिका रही है. 2008 में जब पूरे तिब्बत में विद्रोह हुआ था तो कुछ लोगों के मुताबिक़, कीर्ति मठ में एक भिक्षु ने दलाई लामा की तस्वीर उठा ली, जिसके बाद यहां विरोध भड़क उठा. ये विरोध धीरे-धीरे दंगे में बदल गया और चीनी सैनिकों ने गोलियां चला दीं. ऐसे में इस छोटे से शहर में कम से कम 18 तिब्बती लोग मारे गए.
जब तिब्बत में ये विरोध प्रदर्शन फैला तो अक्सर चीनी पैरामिलिट्री फोर्सेज़ के साथ ये विरोध हिंसक झड़पों में बदल गया. चीन का कहना है कि इसमें 22 लोग मारे गए जबकि निर्वासन में रह रहे तिब्बती समूह इस आंकड़े को क़रीब 200 बताते हैं.
इसके बाद के सालों में दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर 150 से ज़्यादा लोगों ने खुद को आग लगा ली. इनमें ज़्यादातर मामले एबा या उसके आसपास हुए.
इसी वजह से यहां की मुख्य सड़क को 'शहीदों की गली' कहा जाने लगा. इसके बाद चीन ने और कड़ी सख़्ती शुरू कर दी, जिससे यह जान पाना लगभग नामुमकिन हो गया कि तिब्बत या तिब्बती इलाक़े में क्या हो रहा है. जो भी जानकारी बाहर आती है, वह या तो वहां से भागकर गए लोगों से मिलती है या भारत में निर्वासित सरकार से.
थोड़ी और जानकारी जुटाने के लिए हम अगले दिन तड़के फिर से मठ लौट गए. जो लोग हमारे पीछे लगे हुए थे, उन्हें हमने चकमा दे दिया और सुबह की प्रार्थनाओं को देखने के लिए एबा वापस पहुंच गए.
मठ में भिक्षु पीली टोपियां पहनकर इकट्ठा हुए थे, जो कि बौद्ध धर्म की गेलुंग परंपरा की पहचान है.
धीमी आवाज़ों में प्रार्थनाएं हो रही थीं. क़रीब 30 स्थानीय पुरुष और महिलाएं ज़्यादातर पारंपरिक तिब्बती लंबे कुर्तों में, पालथी मारकर बैठे हुए थे.
फिर एक घंटी बजी और प्रार्थना पूरी हो गई.
एक भिक्षु ने हमसे कहा, ''चीनी सरकार ने तिब्बत की हवा को ज़हर बना दिया है. ये अच्छी सरकार नहीं है.''
उन्होंने आगे कहा, ''हम तिब्बतियों को बुनियादी मानवाधिकरों से भी वंचित रखा गया है. चीन की सरकार हमें दबाती और सताती रहती है. ये लोगों की सेवा करने वाली सरकार नहीं है.''
उन्होंने कोई और ब्योरा नहीं दिया और हमारी बातचीत भी छोटी रही, ताकि हम पकड़े न जाएं. फिर भी, ऐसी आवाज़ें सुन पाना यहां बेहद दुर्लभ है.
इस हफ़्ते दलाई लामा 90 साल के हो गए हैं और ऐसे समय में तिब्बत के भविष्य का सवाल और भी अहम हो गया है.
भारत में धर्मशाला में सैकड़ों अनुयायी उन्हें सम्मान देने के लिए इकट्ठा हुए हैं. बुधवार को उन्होंने अपनी बहुप्रतीक्षित उत्तराधिकारी योजना का एलान किया और ये दोहराया कि अगला दलाई लामा उनकी मौत के बाद ही चुना जाएगा.
दुनियाभर में तिब्बती लोगों ने इस पर राहत, शंका या चिंता जताई है, लेकिन दलाई लामा के अपने वतन में नहीं, जहां उनका नाम लेना तक मना है. चीन ने साफ़ कर दिया है कि अगला दलाई लामा चीन से ही होगा और कम्युनिस्ट पार्टी की मंज़ूरी से ही माना जाएगा. तिब्बत, हालांकि इस पर चुप है.
भिक्षु ने हमसे कहा, ''यही सच है, हालात ऐसे ही हैं.''
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सिचुआन की राजधानी चेंगदू से क़रीब 500 किलोमीटर दूर एबा तक जाने वाली सड़क धीरे-धीरे घुमावदार रास्तों से गुजरती है. हर कुछ किलोमीटर पर बौद्ध मंदिरों की सुनहरी, ढलान वाली छतें सूरज की तेज़ रोशनी में चमकती दिखती हैं.
यह 'दुनिया की छत' है जहां याक चराने वाले घुड़सवारों के लिए ट्रैफिक रुक जाता है, जो सीटी बजाकर गायों को हांकते हैं और ऊपर गिद्ध मंडराते रहते हैं.
इस हिमालयी आसामान के नीचे दो दुनिया हैं, जहां संस्कृति और आस्था, पार्टी की एकता और नियंत्रण की मांग से टकराती है.
चीन लंबे समय से कहता आ रहा है कि तिब्बतियों को अपनी आस्था का पालन करने की पूरी आज़ादी है.
मगर यही आस्था सदियों पुरानी उस पहचान की जड़ भी है, जिसे मानवाधिकार समूहों के मुताबिक़ बीजिंग धीरे-धीरे ख़त्म कर रहा है.
मानवाधिकार समूहों का कहना है कि शांतिपूर्ण विरोध करने, तिब्बती भाषा को बढ़ावा देने या दलाई लामा की तस्वीर रखने पर अनगिनत तिब्बतियों को हिरासत में लिया गया है.
कीर्ति मठ के कुछ लोग समेत कई तिब्बतियों से हमने बात की, ये लोग बच्चों की पढ़ाई को लेकर बने नए क़ानूनों से भी चिंतित हैं. अब 18 साल से कम उम्र के सभी बच्चों को चीनी सरकारी स्कूलों में पढ़ना होगा और मंदारिन भाषा सीखनी होगी.
वे मठ में बौद्ध ग्रंथ तभी पढ़ सकते हैं जब 18 साल के हो जाएं. साथ ही उन्हें "देश और धर्म से प्रेम करना होगा और राष्ट्रीय कानूनों और नियमों का पालन करना होगा."
यह उस समुदाय के लिए बहुत बड़ा बदलाव है जहां बच्चे अक्सर छोटी उम्र में ही भिक्षु बना लिए जाते थे और ज़्यादातर लड़कों के लिए मठ ही स्कूल की तरह होते थे.
एबा में बारिश के बीच छाता लेकर प्रार्थना के लिए जाते एक क़रीब 60 साल के भिक्षु ने हमसे कहा, ''पास की एक बौद्ध संस्था को कुछ महीने पहले ही सरकार ने तोड़ दिया. उस स्कूल में उपदेश दिए जाते थे.''
दरअसल, ये नियम साल 2021 में आए उस आदेश के बाद लागू किए गए जिसके तहत तिब्बती इलाक़े के सभी स्कूलों, यहां तक कि किंडरगार्टन में भी, अब चीनी भाषा में पढ़ाई कराई जाएगी.
बीजिंग का कहना है कि इससे तिब्बती बच्चों को देश में नौकरी पाने के बेहतर मौके मिलेंगे क्योंकि यहां कि मुख्य भाषा मंदारिन है.
लेकिन मशहूर शिक्षाविद रॉबर्ट बार्नेट के मुताबिक़, ऐसे नियम तिब्बती बौद्ध धर्म के भविष्य पर "गहरा असर" डाल सकते हैं.
बार्नेट कहते हैं, "हम उस स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जहां चीनी नेता शी जिनपिंग के पास पूरा नियंत्रण होगा. ऐसा दौर आएगा जब तिब्बत तक बहुत कम जानकारी पहुंचेगी और तिब्बती भाषा भी बहुत कम सुनाई देगी."
वो कहते हैं, "स्कूलों में ज़्यादातर पढ़ाई चीनी त्योहारों, चीनी मूल्यों और परंपरागत चीनी संस्कृति की होगी. यानी मानसिक खुराक पर पूरी तरह से उनका नियंत्रण होगा."
एबा तक जाने वाला रास्ता दिखाता है कि बीजिंग ने इस दूरदराज़ इलाके में कितना पैसा लगाया है. एक नई हाई-स्पीड रेलवे लाइन पहाड़ियों के साथ-साथ चलती है जो सिचुआन को पठार के दूसरे इलाक़ों से जोड़ती है.
एबा में जहां पहले साधारण दुकानों में भिक्षुओं के कपड़े और धूप के बंडल बिकते थे, अब वहां नए होटल, कैफे और रेस्तरां खुल गए हैं ताकि पर्यटकों को लुभाया जा सके.
चीनी पर्यटक अपने ब्रांडेड हाइकिंग गियर्स के साथ यहां आते हैं और हैरानी से बौद्ध श्रद्धालुओं को प्रार्थना करते देखते हैं.
इस बीच एक पर्यटक हैरानी से कहता है, ''ये लोग पूरे दिन करते ही क्या हैं?''
दूसरे पर्यटक उत्साहित होकर 'प्रार्थना चक्र' को घुमाते दिखते हैं, कुछ लोग बुद्ध के जीवन के बारे में पूछते नज़र आते हैं.
सड़क किनारे लिखा पार्टी का एक नारा बताता है कि ''सभी जातियों के लोग अनार के दानों की तरह आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.''
लेकिन यहां फैली चौकसी को नज़रअंदाज करना आसान नहीं है.
होटल में चेक-इन करने के लिए चेहरे की पहचान करानी पड़ती है. यहां तक कि पेट्रोल लेने के लिए भी कई तरह की पहचान दिखानी होती है, जिन्हें हाई-डेफिनिशन कैमरे रिकॉर्ड करते हैं.
लोगों को कौन सी जानकारी मिले इस पर चीन लंबे समय से नियंत्रण रखता आया है लेकिन तिब्बती इलाक़े में ये पकड़ और भी सख़्त दिखती है.
बार्नेट कहते हैं कि तिब्बती लोग "बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटे हुए हैं."
'असली' उत्तराधिकारीयह कहना मुश्किल है कि यहां कितने लोगों को बुधवार को दलाई लामा की घोषणा के बारे में पता चला. वह एलान दुनिया भर में तो दिखाया गया. लेकिन चीन में उसे सेंसर कर दिया गया.
1959 से भारत में निर्वासन में रह रहे 14वें दलाई लामा अपने वतन के लिए पूरी आज़ादी की जगह ज़्यादा स्वायत्तता की वकालत करते रहे हैं. बीजिंग मानता है कि दलाई लामा को "तिब्बती लोगों का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है."
दलाई लामा ने 2011 में राजनीतिक अधिकार निर्वासित सरकार को सौंप दिए थे, जिसे दुनियाभर के 1,30,000 तिब्बतियों ने लोकतांत्रिक तरीके से चुना था. इस साल उस सरकार ने चीन के साथ उत्तराधिकारी योजना को लेकर गुप्त बातचीत भी की है, लेकिन यह साफ़ नहीं है कि उसमें कोई प्रगति हुई या नहीं. दलाई लामा पहले भी इशारा कर चुके हैं कि उनका अगला उत्तराधिकारी ''द फ्री वर्ल्ड", यानी चीन के बाहर से होगा. बुधवार को उन्होंने कहा, "किसी और को इसमें दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं है."
दलाई लामा की यह बात चीन के साथ सीधी टकराव की स्थिति बना देती है. क्योंकि चीन ने कहा है कि यह प्रक्रिया "धार्मिक रीति-रिवाजों और ऐतिहासिक परंपराओं के मुताबिक़ चलेगी और राष्ट्रीय क़ानूनों और नियमों के तहत ही होगी."
बार्नेट कहते हैं कि बीजिंग तिब्बतियों को मनाने की तैयारी पहले ही शुरू कर चुका है.
वो कहते हैं, "एक बहुत बड़ी प्रोपेगेंडा मशीन पहले से काम कर रही है. पार्टी ऑफिसों, स्कूलों और गांवों में टीमें भेज रही है ताकि लोगों को दलाई लामा चुनने के 'नए नियमों' के बारे में बताया जा सके."
जब ग़ायब हो गए थे 'पंचेन लामा'जब 1989 में तिब्बती बौद्ध धर्म के दूसरे सबसे बड़े धर्मगुरु पंचेन लामा की मौत हुई तो दलाई लामा ने तिब्बत में उस पद के लिए एक बच्चे को चुना.
लेकिन वह बच्चा गायब हो गया. बीजिंग पर उसे अगवा करने का आरोप लगा, हालांकि चीन कहता है कि वो बच्चा अब बड़ा हो गया है और सुरक्षित है.
इसके बाद चीन ने एक और पंचेन लामा को मान्यता दे दी, जिसे चीन से बाहर के तिब्बती नहीं मानते.
अगर दो दलाई लामा हुए तो यह चीन की मनाने की ताक़त की असली परीक्षा बन सकता है. दुनिया किसे मानेगी? और सबसे अहम सवाल, क्या चीन में रहने वाले ज़्यादातर तिब्बती दूसरे दलाई लामा के बारे में जान भी पाएंगे?
बार्नेट कहते हैं कि बीजिंग "तिब्बती संस्कृति के शेर को पूडल (डॉग ब्रीड) बनाना चाहता है."
उनका कहना है, "चीन वह सब हटाना चाहता है जो उसे ख़तरनाक लगता है.''
बार्नेट आख़िर में कहते हैं, "हमें नहीं पता कि इसमें से कितना बचेगा."
जब हम मठ से निकल रहे थे, तो महिलाओं की एक कतार भारी टोकरी में खेती या निर्माण का सामान लेकर 'प्रार्थना चक्र' वाले कमरे से गुज़र रही थी. वे 'प्रार्थना चक्र' घुमाते हुए तिब्बती में गा रही थीं और मुस्कुरा रही थीं. उनकी सफ़ेद पड़ती बालों की लटें धूप से बचाने वाली टोपियों के नीचे से झलक रही थीं.
तिब्बती पिछले 75 साल से अपनी पहचान को थामे हुए हैं. इसके लिए उन्होंने लड़ाई भी लड़ी है और अपनी जान भी दी है. अब चुनौती यह है कि इसे तब भी बचाए रखना होगा, जब वह इंसान ही नहीं रहेगा जो उनकी आस्था और उनके संघर्ष की सबसे बड़ी मिसाल है.
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