उत्तर प्रदेश में जातियों के सम्मेलनों पर हाल ही में लगी रोक के बाद राजनीतिक दल नए तरीकों से अपनी चुनावी रणनीति को ढालने में जुट गए हैं। समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (BSP) और कांग्रेस पहले ही अपने वोटबैंक मजबूत करने के लिए जातीय आयोजनों की रूपरेखा तैयार कर चुके थे। अब रोक के बाद ये दल कार्यक्रमों का नाम बदलकर आयोजन करने की योजना बना रहे हैं, जबकि छोटे दल इस स्थिति में उलझन में दिख रहे हैं।
सपा का नया तरीका
समाजवादी पार्टी विभिन्न समाजों को जोड़ने के उद्देश्य से जाति सम्मेलनों का आयोजन कर रही थी। इनमें से एक अहम कार्यक्रम गुर्जर चौपाल था। रोक लगने के बाद, इन आयोजनों का नाम बदलकर ‘पीडीए सम्मेलन’ कर दिया गया है। सपा प्रवक्ता राजकुमार भाटी के अनुसार, इस बार चुनाव न लड़ते हुए गुर्जर समाज को पार्टी के साथ जोड़ने पर ध्यान दिया जा रहा है। प्रशासनिक अनुमति न मिलने की शुरुआत में दिक्कतें आईं, लेकिन अब इन सम्मेलनों का आयोजन नाम बदलकर किया जा रहा है। सपा ने नवंबर में गुर्जर रैली की योजना बनाई थी, जिसे अब ‘पीडीए एकता रैली’ या इससे मिलते-जुलते नाम से आयोजित किया जाएगा।
कांग्रेस का नया दृष्टिकोण
कांग्रेस भी पासी समाज को पार्टी के साथ जोड़ने के लिए आयोजनों की योजना बना रही है। प्रारंभिक छोटे आयोजनों के बाद 25 दिसंबर को बड़े पैमाने पर पासी सम्मेलन करने की योजना थी। कार्यक्रम संयोजक सचिन रावत के अनुसार, अब यह कार्यक्रम ‘सामाजिक क्रांति सम्मेलन’ के नाम से आयोजित होगा। इसे महराजा बिजली पासी की जयंती के अवसर पर रखा गया है।
बसपा की रणनीति
सूत्रों के अनुसार, BSP ने अपनी इकाइयों को निर्देश दे दिए हैं कि वे जातीय सम्मेलनों का नाम ‘बहुजन सम्मेलन’ रखें। इस कदम से पार्टी ने रोक के बावजूद अपने जातीय कार्यक्रमों को जारी रखने का रास्ता साफ किया है।
छोटे दलों की उलझन
अपना दल (सोनेलाल), निषाद पार्टी, सुभासपा और अपना दल (कमेरावादी) जैसे छोटे दल इस रोक के बाद काफी परेशान हैं। इन दलों की राजनीति मूल रूप से कुछ विशेष जातियों के इर्द-गिर्द केंद्रित है। अब आयोजनों पर रोक के बाद उनकी रणनीति क्या होगी, यह देखना दिलचस्प होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रिय राष्ट्रीय लोक दल भी इसी तरह के दलों में शामिल है, हालांकि यह पार्टी जाट समाज के लिए बड़े सम्मेलन आयोजित नहीं करती।
इस स्थिति में उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय रणनीतियों को लेकर हलचल तेज हो गई है, और बड़े दलों ने अपनी योजनाओं का नाम बदलकर इसे निष्पादित करने का रास्ता निकाल लिया है। छोटे दलों के लिए यह चुनौती उनके अस्तित्व और वोट बैंक को बनाए रखने का एक अहम मोड़ बन गई है।
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