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नीलकंठ की कथा, विषपान से शुरू हुई जलाभिषेक की परंपरा

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देवों के देव महादेव को प्रसन्न करने के अनेक उपायों में कांवड़ यात्रा एक अत्यंत लोकप्रिय और प्रभावशाली साधना है। विशेषकर सावन में यह यात्रा शिव भक्ति का प्रतीक बन जाती है, जिसमें श्रद्धालु गंगाजल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं।



पौराणिक कथाओं के अनुसार, सावन मास में जब समुद्र मंथन हुआ, तब उससे निकला भयंकर हलाहल विष संपूर्ण सृष्टि को विनाश की ओर ले जाने वाला था। सभी देवता भयभीत हो उठे और उन्होंने भगवान शिव से सहायता की प्रार्थना की। लोक कल्याण के लिए शिवजी ने वह विष स्वयं पान कर लिया, लेकिन न तो उसे बाहर निकाला और न ही भीतर जाने दिया। उन्होंने उसे अपने कंठ में ही रोक लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे ‘नीलकंठ’ कहलाए।



विष की तीव्रता से शिवजी को शीतलता प्रदान करने के लिए देवताओं ने उन पर गंगाजल का अभिषेक किया। यहीं से शिव पर जल चढ़ाने की परंपरा की शुरुआत मानी जाती है। माना जाता है कि शिव के जलाभिषेक से उनके भीतर धारण किए गए विष की अग्नि शांत होती है और साथ ही भक्तों को भी उनके जीवन में शिव की तरफ से शांति, कल्याण और मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद मिलता है।



त्रेतायुग में भगवान राम ने और द्वापर में युधिष्ठिर ने कांवड़ में जल भरकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। कल्पभेद और युगभेद के कारण कुछ विद्वानों का मानना है पहली बार श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की शुरूआत की थी। मत चाहें अनेक हों, लेकिन निष्कर्ष यह है कि शिव जी का जलाभिषेक कांवर यात्रा एवं सावन में शिव पूजा भक्तों का कल्याण कर प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है।



सावन में किया गया पुण्यकर्म भक्तों के जीवन को शुद्ध एवं समृद्ध करता है, उन्हें प्रगति, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक उत्थान की ओर ले जाता है। सावन में यदि हम सच्चे मन से शिव की भक्ति करते है तो जीवन में किसी भी प्रकार का भय, आधि-व्याधि का निवारण स्वतः ही हो जाता है।

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