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एक ही कर्म, दो प्रतिक्रियाएं, कौन तय करता है पाप और पुण्य

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अन्तर्मन किस तरह से कार्य करते हैं, आइए एक उदाहरण के माध्यम से जानें। मान लीजिए एक व्यक्ति किसी पीपल के वृक्ष के नीचे दिया जलाता है और उसे पवित्र मानता है। उसके लिए वह वृक्ष धर्म, पूजन और आस्था का प्रतीक है। वहीं, एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाला आधुनिक शिक्षित व्यक्ति इस क्रिया को केवल एक परंपरा मानता है, जिसमें कोई तात्त्विक अर्थ नहीं है। अगर गलती से वह पेड़ के नीचे कुछ फेंक देता है, तो उसका अंतरमन उसे नहीं कचोटता, लेकिन धार्मिक विश्वास वाला व्यक्ति ऐसा करने पर अपराधबोध से भर सकता है।



अन्तर्मन हमारे शरीर के अंदर का कम्प्यूटर मेमोरी है, जिसमें हम अपनी नैतिकता मापते हैं। बचपन से उसके मेमोरी में हम जो कुछ भी फीड करते हैं उसी के अनुरूप वह रिएक्ट करता है। हम जो कुछ भी अन्तर मन को समझाते आये हैं या हमारे बुजुर्गों ने बचपन से आज तक हमें पाप व पुण्य समझाया है उसी के अनुसार कम्प्यूटरीकृत अन्तर्मन जवाब देता है उसी के अनुरूप उसके संस्कार बनते हैं। जब हम विचार भेजते हैं अन्तर्मन में तो वह अपने मेमोरी में उपलब्ध जानकारी के अनुसार जवाब देता है कि यह कार्य अच्छा है या बुरा। तात्पर्य यह है कि अन्तर्मन भी हमारा बनाया हुआ और समझाया हुआ है।



अक्सर लोग पाप और पुण्य में उलझ जाते हैं, कोई कार्य किसी के लिए पाप है तो दूसरे के लिए पुण्य। पाप और पुण्य का बोध व्यक्ति के अन्तर्मन से आता है, और यह अन्तर्मन उसी डेटा के अनुसार कार्य करता है, जो हमने उसमें बचपन से डाला है। अन्तर्मन वास्तव में हमारे संस्कारों, समाज, धर्म और बचपन में डाली गई मान्यताओं की उपज है। सत्कर्म, पूजा-पाठ पर लोग इसलिए जोर देते हैं, क्योंकि जैसे-जैसे हमारे संस्कार बदलने लगते हैं, वैसे-वैसे हमारी अंतरात्मा की परिभाषा भी बदलने लगती है।



अन्तर्मन वह सूक्ष्म चेतना है, जो हमारे भीतर हर क्षण हमारी सोच, निर्णय और भावनाओं को प्रभावित करती है। हम जिसे “अंतरात्मा की आवाज़” कहते हैं, वह दरअसल हमारे ही अनुभवों, संस्कारों, धारणाओं और भावनाओं का समुच्चय है, इसीलिए आवश्यक है कि हम अपने अन्तर्मन को विवेक और करुणा से प्रशिक्षित करें तभी हम सच्चे अर्थों में नैतिक जीवन जी सकते हैं।



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