–दो सप्ताह में अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश
Prayagraj, 30 सितम्बर (Udaipur Kiran News) . इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 1982 में हुई विवाहिता की हत्या मामले में उसके पति को दोषी ठहराया है. अतिरिक्त सत्र न्यायालय जालौन ने पति व अन्य को बरी कर दिया था, लेकिन हाईकोर्ट ने उस निर्णय को पलट दिया. यह दोषसिद्धि घटना के 43 साल बाद हुई है.
न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता और न्यायमूर्ति हरवीर सिंह की खंडपीठ ने अपने निर्णय में प्रकरण को अंधविश्वास का उत्कृष्ट मामला बताया. खंडपीठ ने मुख्य आरोपित अवधेश कुमार और सह-आरोपित माता प्रसाद को कुसुमा देवी की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई. आरोपितों को दो सप्ताह के भीतर अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया है. निचली अदालत के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार द्वारा की गई अपील पर यह आदेश सुनाया गया है. दो आरोपितों की अपील लम्बित रहने के दौरान मृत्यु हो गई थी.
अभियोजन पक्ष के अनुसार कुसुमा की हत्या उसके पति और तीन अन्य लोगों ने अपने छोटे भाई की पत्नी के साथ कथित अवैध सम्बंधों के चलते की थी. यह घटना छह अगस्त, 1982 को हुई थी. अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने नवम्बर 1984 में निर्णय सुनाया था. प्रकरण जालौन थाने का है. बीते 25 सितम्बर को गुण दोष के आधार पर दिए गए निर्णय में न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष के गवाहों ने सभी महत्वपूर्ण जानकारियों की पुष्टि की थी, सिवाय कुछ मामूली विरोधाभासों के.
खंडपीठ ने कहा, निचली अदालत ने पूरी तरह से कमजोर और अस्तित्वहीन आधारों पर गवाही को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वे बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं हैं. मुख्यतः इस आधार पर कि पुलिस ने उस टॉर्च को अपने कब्जे में नहीं लिया था जिससे उन्होंने घटना देखी थी. पीठ ने कहा, जब हम उक्त तथ्य के संबंध में उक्त गवाहों की गवाही पर गौर करते हैं, तो हम पाते हैं कि दोनों गवाहों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उन्होंने घटना टॉर्च की रोशनी में देखी थी और उक्त टॉर्च अभी भी उनके घर पर मौजूद है.“ न्यायालय ने कहा कि पुलिस द्वारा टार्च को अपने कब्जे में न लेने का बचाव पक्ष को कोई लाभ नहीं मिल सकता.
खंडपीठ ने कहा “यह ज़रूरी नहीं है कि हर व्यक्ति, जिसने अपराध होते देखा हो, कानून का सहारा ले. पीड़ित पक्ष ही कानून को लागू करता है और एक गवाह सबूत पेश कर सकता है और गवाही दे सकता है. पीड़िता की मृत्यु के तुरंत बाद, आरोपितों ने पुलिस और मृतका के परिजनों को सूचित किए बिना ही उसका शव जला दिया.
न्यायालय ने कहा, कानूनी सजा से खुद को बचाने के इरादे से बेहद जल्दबाजी और हड़बड़ी में किया गया यह कृत्य उनके असामान्य आचरण को दर्शाता है और उनके अपराध की ओर इशारा करता है. कोर्ट ने दोनों जीवित अभियुक्त- प्रतिवादी अवधेश कुमार और माता प्रसाद को धारा 302 सहपठित 34 आईपीसी और धारा 201 आईपीसी के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया है. धारा 302/34 आईपीसी के तहत 20 हजार रुपये के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास और धारा 201 आईपीसी के तहत पांच हजार रुपये के जुर्माने के साथ तीन साल की अवधि के लिए दंडित किया है. कहा है कि दोनों सजाएं साथ साथ चलेंगी.
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे