–कहा, निष्क्रियता के लिए प्रधानों, लेखपालों और तहसीलदारों के खिलाफ कार्रवाई की जाय
Prayagraj, 13 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) . तालाबों, चरागाहों और अन्य सार्वजनिक उपयोगिता की सम्पत्तियों पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण को समाप्त करने के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण आदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूरे Uttar Pradesh में कड़ी कार्रवाई करने का निर्देश दिया है.
इस आदेश में कहा गया है कि ग्राम सभा की भूमि पर अतिक्रमण की सूचना देने या उसे हटाने में प्रधानों, लेखपालों और राजस्व अधिकारियों की निष्क्रियता आपराधिक विश्वासघात के समान है. न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरि की एकल पीठ ने अपने 24 पृष्ठ के आदेश में न केवल 90 दिनों के भीतर राज्य भर में सार्वजनिक भूमि या सार्वजनिक उपयोगिता के प्रयोजनों के लिए आरक्षित भूमि पर अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया है, बल्कि कानून के अनुसार कार्य करने में विफल रहने वाले अधिकारियों के खिलाफ विभागीय और आपराधिक कार्यवाही करने करने का भी आदेश दिया है.
हाईकोर्ट ने कहा कि प्रधान और लेखपाल सार्वजनिक सम्पत्ति के संरक्षक हैं. न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ’तालाब (बाबली)’ या अन्य सार्वजनिक उपयोगिता वाली भूमि के रूप में दर्ज भूमि को Uttar Pradesh पंचायत राज अधिनियम, 1947 की धारा 28-ए और 28-बी के तहत गठित भूमि प्रबंधक समिति द्वारा ट्रस्ट में रखा जाता है. इसमें कहा गया है कि Uttar Pradesh राजस्व संहिता, 2006 की धारा 67 को Uttar Pradesh राजस्व संहिता नियम, 2016 के नियम 66 और 67 के साथ पढ़ा जाए तो ग्राम पंचायत की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने, उसके दुरुपयोग और गलत कब्जे से बचाने तथा बेदखली के बाद उस पर कब्जा बहाल करने का प्रावधान है.
न्यायालय ने कहा कि अध्यक्ष के रूप में प्रधान और सचिव के रूप में लेखपाल कानूनी रूप से ऐसी सम्पत्ति की रक्षा करने और Uttar Pradesh राजस्व संहिता नियम, 2016 के अनुसार किसी भी अतिक्रमण की सूचना तुरंत तहसीलदार को देने के लिए बाध्य हैं. न्यायमूर्ति गिरि ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसा करने में उनकी विफलता महज प्रशासनिक चूक नहीं है, बल्कि यह सार्वजनिक भूमि पर अवैध कब्जे के लिए ’षड्यंत्र और उकसावे’ के समान है.
न्यायालय ने कहा, “यदि कोई सूचना नहीं दी जाती है या देरी से सूचना दी जाती है तो भूमि प्रबंधक समिति के अध्यक्ष अर्थात ग्राम प्रधान और सचिव अर्थात लेखपाल के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी क्योंकि वे सम्पत्ति के संरक्षक हैं.“ न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि भूमि प्रबंधक समिति के अध्यक्ष होने के नाते ग्राम प्रधान को अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहने पर पंचायत राज अधिनियम की धारा 95(1)(जी)(iii) के तहत कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है.
इस मामले में न्यायालय ने पाया कि मिर्जापुर के ग्रामीणों ने एक तालाब पर अतिक्रमण कर लिया था और उसे हटाने के लिए 2006 की धारा 67 के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई. उनकी निष्क्रियता के बाद, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया. ऐसे कृत्यों के पारिस्थितिक और संवैधानिक निहितार्थों पर प्रकाश डालते हुए कोर्ट ने कहा कि तालाबों, झीलों और अन्य प्राकृतिक जलाशयों जैसे जल निकायों पर अतिक्रमण से गंभीर पारिस्थितिक असंतुलन और पर्यावरणीय क्षरण होता है. ये जल निकाय भूजल स्तर को बनाए रखने, जैव विविधता को सहारा देने और एक स्थायी पारिस्थितिकी तंत्र सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं. निजी या व्यावसायिक उपयोग के लिए उन पर अवैध कब्ज़ा या उनका रूपांतरण प्राकृतिक जल चक्र को बाधित करता है. भूजल में कमी, प्रदूषण और जलीय आवासों को नुकसान पहुंचाता है, जिससे जनता के स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार पर असर पड़ता है.
न्यायालय ने आगे कहा कि इस तरह के कृत्य न केवल समुदाय के लिए कठिनाई और संकट का कारण बनते हैं, बल्कि अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के जीवन के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन करते हैं. इसके अलावा, पीठ ने कहा कि इस तरह के अतिक्रमण अनुच्छेद 14 के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं क्योंकि वे सामान्य उपयोग के लिए प्राकृतिक संसाधनों के प्रशासन में मनमानी पैदा करते हैं. कड़े शब्दों में पीठ ने याद दिलायाः “जल ही जीवन है“ अर्थात “जल ही जीवन है“, इस प्रकार जल के बिना पृथ्वी पर किसी भी प्राणी के जीवन का अस्तित्व नहीं है, इसलिए इसे किसी भी हालत में बचाया जाना चाहिए“. तदनुसार, न्यायालय ने माना कि जलाशयों पर किसी भी प्रकार का अतिक्रमण स्वीकार्य नहीं है तथा इसे “भारी जुर्माना, लागत और दंड के साथ यथाशीघ्र“ हटाया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
कोर्ट ने कहा कि चूंकि भूमि प्रबंधक समिति ग्राम सभा की संपत्ति के संरक्षण के लिए जिम्मेदार है, इसलिए प्रधान और लेखपाल सहित इसके सदस्यों की निष्क्रियता, Indian न्याय संहिता, 2023 की धारा 316 के तहत विश्वासघात और षड्यंत्र के आरोपों के साथ-साथ आपराधिक विश्वासघात का मामला बनेगी. फैसले में स्पष्ट किया गया कि ग्राम सभा की भूमि ’सौंपी गई संपत्ति’ है, और अतिक्रमण की सूचना न देकर या गलत कब्जे की अनुमति देकर इसकी सुरक्षा में कोई भी विफलता, सार्वजनिक विश्वास का बेईमानी से दुरुपयोग है. न्यायमूर्ति गिरि ने निर्देश दिया कि ऐसी विफलताओं के लिए बीएनएस के तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू की जाए.
महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने जवाबदेही के लिए सख्त समय सीमा निर्धारित की है. प्रधान-लेखपाल को किसी भी अतिक्रमण की सूचना आरसी फॉर्म 19 के माध्यम से 60 दिनों के भीतर तहसीलदार को देनी होगी. तहसीलदार को Uttar Pradesh राजस्व संहिता, 2006 की धारा 67 के तहत कारण बताओ नोटिस (आरसी फॉर्म 20) जारी करने के 90 दिनों के भीतर कार्यवाही पूरी करनी होगी, जिससे न केवल आदेश सुनिश्चित हो बल्कि अतिक्रमण को वास्तव में हटाया जाए और सार्वजनिक भूमि की बहाली भी सुनिश्चित हो. यदि विलम्ब के लिए कोई वैध कारण दर्ज नहीं किया जाता है तो यह राजस्व संहिता नियमावली, 2016 के नियम 195 के अन्तर्गत कदाचार माना जाएगा तथा Uttar Pradesh सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली, 1999 के अन्तर्गत विभागीय कार्रवाई की जाएगी.
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 67 के तहत आदेश के विरुद्ध अपील के लंबित रहने मात्र से, सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 5 के तहत विशिष्ट स्थगन आदेश के अभाव में, बेदखली पर स्वतः रोक नहीं लग जाती. कोर्ट ने अनिवार्य विभागीय और आपराधिक कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया. Uttar Pradesh के जिला मजिस्ट्रेटों और एसडीएम को ऐसी विफलताओं को Uttar Pradesh राजस्व संहिता के नियम 195 और धारा 233 (ix) के तहत कदाचार मानते हुए विभागीय कार्यवाही शुरू करनी चाहिए. साथ ही, आपराधिक विश्वासघात, षडयंत्र और दुष्प्रेरण के लिए Indian न्याय संहिता की धारा 316 के तहत आपराधिक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए. कार्य करने में विफल रहने वाले प्रधानों को पंचायत राज अधिनियम की धारा 95(1)(जी)(iii) के तहत पद से हटाया जाना चाहिए. न्यायालय ने आगे निर्देश दिया कि यदि कोई तहसीलदार या तहसीलदार (न्यायिक) 90 दिनों के भीतर धारा 67 के तहत कार्यवाही पूरी करने में विफल रहता है और देरी के कारणों को दर्ज करने में विफल रहता है, तो उनके खिलाफ भी अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जाएगी.
जस्टिस पी के गिरी ने पुलिस अधिकारियों को अतिक्रमण हटाने में पूर्ण सहयोग प्रदान करने का आदेश दिया तथा यह सुनिश्चित किया कि यह प्रक्रिया शांतिपूर्ण ढंग से और बिना किसी बाधा के पूरी हो. इसने यह भी निर्देश दिया कि सूचना देने वाले (अतिक्रमण की सूचना देने वाले व्यक्ति) को हर स्तर पर सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए. पीठ ने कहा कि यदि अतिक्रमण जारी रहता है या आदेश का पालन नहीं किया जाता है, तो दोषी अधिकारियों के खिलाफ हाईकोर्ट में दीवानी अवमानना कार्यवाही शुरू की जा सकती है. न्यायालय ने प्रवर्तन के लिए विस्तृत, राज्यव्यापी निर्देश भी जारी किए हैं.
हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि सभी जिला मजिस्ट्रेट, एसडीएम, तहसीलदार और तहसीलदार (न्यायिक) को 90 दिनों के भीतर सार्वजनिक भूमि पर सभी अतिक्रमणों को हटाना सुनिश्चित करें. अपर मुख्य सचिव (राजस्व) और सभी संबंधित विभागों के प्रमुख सचिवों को यह आदेश Uttar Pradesh के प्रत्येक जिले और राजस्व कार्यालय में प्रसारित करना होगा. सभी जिलाधिकारियों और विभागीय प्रमुखों द्वारा की गई कार्रवाई और हटाए गए अतिक्रमणों पर वार्षिक रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रस्तुत की जानी चाहिए. यदि उच्च अधिकारी उल्लंघनों की अनदेखी करते हैं या लापरवाह अधीनस्थों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहते हैं, तो उनकी भूमिका को उकसाने या षड्यंत्र के रूप में माना जा सकता है.
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे
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